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महात्मा गांधीजी की जीवनी। BIO-GRAPHY OF MAHATMA GHANDHI (Hindi) by Anmol Subichar

महात्मा गांधीजी की जीवनी
(Mahatma Ghandhi's Biography)
गांधी जीवनी


TABLE OF CONTENT
  1. प्रस्तावना
  2. जन्म और प्रारंभिक शिक्षा
  3. इंग्लैंड में युवा गांधी कीशिक्षा
  4. व्यावसायिक जीवन की शुरूआत
  5. दक्षिण अफ्रीका में गांधीजीका सत्याग्रह
  6. भारत में सत्याग्रह की शुरूआत
  7. रोलैक्ट एक्ट विरोध और दांडीयात्रा
  8. द्वितीय गोलमेज परिषद और `ख्रिसमसगिप्ट'
  9. भारत छोड़ो आंदोलन
  10. देश को मिली आजादी,पर नहींरहें गांधीजी!



प्रस्तावना

जब गांधीजी का जन्म हुआ, तब देश में अंग्रेजी हुकूमत का साम्राज्य था । यद्यपि 1857 की क्रांति ने ब्रिटिश सत्ता को हिलाने का प्रयास किया था, परंतु अंग्रेजी शक्ति ने उस विद्रोह को कुचल कर रख दिया । अंग्रेजो के कठोर शासन में भारतीय जनमानस छटपटा रहा था । अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अंग्रेज किसी भी हद तक अत्याचार करने के लिए स्वतंत्र थे । देश की नई पीढ़ी के जन्म लेते ही, ब्रिटिश हुकूमत गुलामी की जंजीरों से उन्हें जकड़ रही थी । लगभग डेढ़ दशक तक अंग्रेजों ने भारत पर एकछत्र राज्य किया ।

जब गांधीजी की मृत्यु हुई, तब तक देश पूरी तरह से आलाद हो चुका था। गुलामी के काले बादल छँट चुके थे । देश के करोड़ो मूक लोगों को वाणी देने वाले इस महात्मा को लोगों ने अपने सिर-आँखों पर बैठाया । इतिहास के पन्नों में गांधीजी का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखा गया । गांधीजी का जीवन एक आदर्श जीवन माना गया। उन्हें भारत के सुंदर शिल्पकार की संज्ञा दी गई । उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए देशवासियों ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' की उपाधी दी ।

स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी के योगदान को भुला पाना एक टेढ़ी खीर है । ब्रिटिश हुकूमत को नाको चने चबवाने वाले इस महात्मा के कार्य मील का पत्थर साबित हुए। देशवासियों के सहयोग से उन्होंने वह कर दिखाया, जिसका स्वप्न भारत के हर घर में देखा जाता था, वह स्वप्न था - दासता से मुक्ति का, अंधेरे पर उजाले की विजय का । गांधीजी के निर्देशन में देश के करोड़ों लोगों ने आततायी शक्ति के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की थी । वे अपने आप में राजा राम मोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, दादाभाई नौरोजी आदी थे। वास्तव में उनका व्यक्तित्व इन सभी का मिश्रण था । उनके विचार-चिंतन में सभी महापुरुषों की वाणी को शब्द मिले थे । इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय राजनीति के फलक पर ऐसा नीतिवान और कथन-करनी में एक जैसा आचरण करने वाला नेता अन्य कहीं भी दिखाई नहीं देता ।

गांधीजी ने हमेशा दूसरों के लिए ही संघर्ष किया। मानो उनका जीवन देश और देशवासियों के लिए ही बना था । इसी देश और उसके नागरिकों के लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया । आने वाली पीढ़ि की नज़र में मात्र देशभक्त, राजनेता या राष्ट्रनिर्माता ही नहीं होंगे, बल्कि उनका महत्व इससे भी कहीं अधिक होगा । वे नैतिक शक्ति के धनी थे, उनकी एक आवाज करोड़ों लोगों को आंदोलित करने के की क्षमता रखती थी । वे स्वयं को सेवक और लोगों का मित्र मानते थे । यह महामानव कभी किसी धर्म विशेष से नहीं बंधा शायद इसीलिए हर धर्म के लोग उनका आदर करते थे । यदि उन्होंने भारतवासियों के लिए कार्य किया तो इसका पहला कारण तो यह था कि उन्होंने इस पावन भूमि पर जन्म लिया, और दूसरा प्रमुख कारण उनकी मानव जाति के लिए मानवता की रक्षा करने वाली भावना थी ।

वे जीवनभर सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते रहे। सत्य को ईश्वर मानने वाले इस महात्मा की जीवनी किसी महाग्रंथ से कम नहीं है । उनकी जीवनी में सभी धर्म ग्रंथों का सार है। यह भी सत्य है कि कोई व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता। कर्म के आधार पर ही व्यक्ति महान बनता है, इसे गांधीजी ने सिद्ध कर दिखाया । एक बात और वे कोई असाधारण प्रतिभा के धनी नहीं थे । सामान्य लोगों की तरह वे भी साधारण मनुष्य थे । रवींद्रनाथ टागोर, रामकृष्ण परमहंस, शंकराचार्य या स्वामी विवेकानंद जैसी कोई असाधारण मानव वाली विशेषता गांधीजी के पास नहीं थी । वे एक सामान्य बालक की तरह जन्मे थे। अगर उनमें कुछ भी असाधारण था तो वह था उनका शर्मीला व्यक्तित्व । उन्होंने सत्य, प्रेम और अंहिंसा के मार्ग पर चलकर यह संदेश दिया कि आदर्श जीवन ही व्यक्ति को महान बनाता है । यहां यह प्रश्न सहज उठता है कि यदि गांधी जैसा साधारण व्यक्ति महात्मा बन सकता है, तो भला हम आप क्यों नहीं ?

उनका संपूर्ण जीवन एक साधना थी, तपस्या थी । सत्य की शक्ति द्वारा उन्होंने सारी बाधाओं पर विजय प्राप्त की । वे सफलता की एक-एक सीढ़ी पर चढ़ते रहे । गांधीजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि दृढ़ निश्चय, सच्ची लगन और अथक प्रयास से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है । गांधीजी की महानता को देखते हुए ही अल्बर्ट आइंटस्टाइन ने कहा था कि, आने वाली पीढ़ी शायद ही यह भरोसा कर पाये कि एक हाड़-मांस का मानव इस पृथ्वी पर चला था ।   

सचमुच गांधीजी असाधारण न होते हुए भी असाधारण थे । यह संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए गौरव का विषय है कि गांधीजी जैसा व्यक्तित्व यहाँ जन्मा । मानवता के पक्ष में खड़े गांधी को मानव जाति से अलग करके देखना ए बड़ी भूल मानी जायेगी। 1921 में भारतीय राजनीति के फलक पर सूर्य बनकर चमके गांधीजी की आभा से आज भी हमारी धरती का रूप निखर रहा है । उनके विचारों की सुनहरी किरणें विश्व के कोने-कोने में रोशनी बिखेर रही हैं । हो सकता है कि उन्होंने बहुत कुछ न किया हो, लेकिन जो भी किया उसकी उपेक्षा करके भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास नहीं लिखा जा सकता ।



जन्म और प्रारंभिक शिक्षा

मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्तूबर सन् 1869 को पोरबंदर में हुआ था। पोरबंदर, गुजरात कठियावड़ की तीन सौ में से एक रियासत थी। उनका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था, जो कि जाति से वैश्य था। उनके दादा उत्तमचंद गांधी पोरबंदर के दीवान थे। आगे चलकर 1847 में उनके पिता करमचंद गांधी को पोरबंदर का दीवान घोषित किया गया। एक-एक करके तीन पत्नी की मृत्यु हो जाने पर करमचंद ने चौथा विवाह पुतलीबाई से किया, जिनकी कोख से गांधीजी ने जन्म लिया। मोहनदास की माँ का स्वभाव संतों के जैसा था। गांधीजी अपनी माँ के विचारों से खूब प्रभावित थे।

गांधीजी की आरंभिक शिक्षा पोरबंदर में हुई। जहाँ गणित विषय में उन्होंने अपने आपको काफी कमजोर पाया। कई वर्षों के बाद उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वे झेंपू, शर्मीले और कम बुद्धि वाले छात्र हुआ करते थे। सात वर्ष की उम्र में उनका परिवार काठियावाड की अन्य रियासत राजकोट में आकर बस गया। यहाँ भी उनके पिता को दीवान बना दिया गया। यहाँ पर उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण की। बाद में हाईस्कूल में प्रवेश लिया। अब वे मध्यम श्रेणी के शांत, शर्मीले और झेंपू किस्म के छात्र बन चुके थे। एकांत उन्हें बहुत प्रिय था।

विद्यालय की गतिविधियाँ या परीक्षाओं के परिणाम से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला कि जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि वे भविष्य में महान बनेंगे। लेकिन विद्यालय में घटी एक घटना ने यह छिपा संदेश अवश्य दे डाला कि एक दिन यह छात्र आगे अवश्य जायेगा। हुआ यूं कि उस दिन स्कूल निरीक्षक विद्यालय में निरीक्षण के लिए आये हुए थे। कक्षा में उन्होंने छात्रों की 'स्पेलिंग टेस्ट` लेनी शुरू की। मोहनदास शब्द की स्पेलिंग गलत लिख रहे थे, इसे कक्षाध्यापक ने संकेत से मोहनदास को कहा कि वह अपने पड़ोसी छात्र की स्लेट से नकल कर सही शब्द लिखें। उन्होंने नकल करने से इंकार कर दिया। बाद में उन्हें उनकी इस 'मूर्खता` पर दंडित भी किया गया।

वैसे तो मोहनदास आज्ञाकारी थे, पर उनकी दृष्टी में जो अनुचित था, उसे वे उचित नहीं मानते थे। उनका परिवार वैष्णव धर्म का अनुयायी था। इस संप्रदाय में मांस भक्षण और धूम्रपान घोर पाप माने जाते थे। उन दिनों शेख महताब नाम का उनका एक सहपाठी था। महताब ने गांधीजी को यह विश्वास दिलाया कि अंग्रेज भारत पर इसलिए राज कर रहे हैं, क्योंकि वे गोश्त खाते हैं। उस छात्र के मुताबिक मांस ही अंग्रेजो की शक्ति का राज है। दोस्त के इस कुतर्कों ने मोहनदास को गोश्त खाने के लिए राजी कर लिया। देशभक्ति के कारण उन्होंने पहली बार मांस खाने के बाद वे पूरी रात सो नहीं सके। बार-बार उन्हें ऐसा लगता जैसे बकरा पेट में मिमिया रहा हो। लेकिन थोड़े-थोड़े फासलें पर वे मांस का सेवन करते रहे। माता-पिता को आघात पहुँचे इसलिए उन्होंने गोश्त खाना बंद कर दिया। वे शाकाहारी बन गये। इस उम्र में उन्होंने धूम्रपान और चोरी करने का भी अपराध किया। लेकिन बाद में रो कर पश्चाताप करते हुए उन्होंने सारी बुरी आदतों से किनारा कर लिया।

तेरह वर्ष की आयु में मोहनदास का विवाह उनकी हम-उम्र कस्तूरबा से कर दिया गया। उस उम्र के लड़के के लिए शादी का अर्थ नये वत्र, फेरे लेना और साथ में खेलने तक ही सीमित था। लेकिन जल्द ही उन पर काम का प्रभाव पड़ा। शायद इसी कारण उनके मन में बाल-विवाह के प्रति कठोर विचारों का जन्म हुआ। वे बाद में बाल-विवाह को भरत की एक भीषण बुराई मानते थे। एक दूसरे से कम उम्र में अनजान बच्चों का विवाह करना, आम रिवाज था और यह धारणा थी कि ऐसे विवाह प्रायः सुखी होते थे। कुछ भी हो, गांधीजी के बारे में ऐसा ही था। हालांकि बाद के वर्षों में उनकी अंतरात्मा बाल-विवाह को लेकर काफी कचोटती रहती थी, लेकिन उन्होंने आजीवन कस्तूरबा को एक आदर्श पत्नी के रूप में पाया।

इंग्लैंड में युवा गांधी की शिक्षा

मैट्रिक करने के बाद गांधीजी ने भावनगर के समलदास कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ का वातावरण उन्हें रास नहीं आया, उन्हें पढ़ाई करने में काफी कठिनाइयाँ आ रही थी। इसी बीच सन् 1885 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गई। उनके परिवार के विश्वसनीय मित्र भावजी दवे चाहते थे कि मोहनदास अपने दादा व पिता की तरह मंत्री बनें। इस पद के लिए कानून की जानकारी सबस महत्वपूर्ण थी। इसलिए उन्होंने सलाह दी कि मोहनदास इंग्लैंड जाकर बैरिस्टरी की पढ़ाई करें। मोहनदास इसे सुनते ही खूब प्रसन्न हुए। उनकी माँ उन्हें विदेश भेजने के खिलाफ थीं। किंतु काफी मान-मनौवल के बाद जब वे राजी हुईं तब उन्होंने मोहनदास से यह संकल्प कराया कि वे शराब, त्री और मांस को भूलकर भी नहीं छुएँगे।

गांधीजी अपनी इंग्लैंड यात्रा के लिए बंबई के समुद्री तट पर पहुँचे। यहाँ भी उनके विदेश जान के खिलाफ जाति-बिरादरी के लोगों ने आपत्ति दर्ज की। यहाँ तक कि उन्हें बिरादरी से बाहर करने की धमकियाँ मिलीं। पर गांधीजी ने इंग्लैंड जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। 4 सितंबर 1888 को वे इंग्लैंड जाने के लिए रवाना हुए। इसके कुछ महिने बाद उनकी पत्नी कस्तूरबा ने एक सुंदर से लड़के को जन्मे दिया।

आरंभ के कुछ दिन गांधीजी के लिए काफी दुखदायी थे। उनका वहाँ मन नहीं लगता था। "मैं हमेशा अपने घर और देश के बारे में सोचा करता था। सब कुछ असहज लगता था। अकेलापन पूरी तरह हावी हो चुका था। मांस न खाने की प्रतिज्ञा ने मेरी कठिनाइयों को और भी बढ़ा दिया था। संशय और आशंकाएँ अकेलेपन की भावना का उभार रही थीं। मुझे मेरा भविष्य अंधकारमय लगने लगा। अकेलेपन के अतिशय दुख से घबराकर जब मैं सोचता कि लम्बे-लम्बे तीन साल यहाँ काटने होंगे तो मेरी आँखों की नींद उड़ जाती और मैं फूट-फूटकर रोने लगता।"

कुछ दिनों के पश्चात एम के गांधी ने पूरी तरह से 'जेंटलमैन` बनने का निश्चय किया। ल्रदन के सबसे फैशनेबल और महंगे दर्जियों से सूट सिलाये गये। घड़ी में लगाने के लिए भारत से सोने की दुलड़ी चैन भी उन्होंने मंगवा ली। नाच-गाने की शिक्षा लेने लगे। सिल्की (रेशमी) टोपी भी उन्होंने खरीदी।

लेकिन आत्मनिरीक्षण की उनकी आदत ने उनके मन को झकझोर कर रख दिया। यह तामझाम उन्हें बेमानी लगने लगा। तीन महीने फैशन की चकचौंध में भटकने के बाद उन्होंने फिजूलखर्ची छोड़कर मितव्ययिता का मार्ग चुना। उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने जीवन में तड़क-भड़क को स्थान न देकर अपने चारित्रिक गुणों का विकास करेंगे। उनके मत में "उच्च चरित्र ही व्यक्ति को 'जेंटलमैन` बना सकता है।"

दूसरे वर्ष उनके एक थियोसिफिकल मित्र ने उन्हें एडविन अर्नोल्ड के छंद बद्ध गीता अनुवाद वाली पुस्तक 'दि सांग सेलेस्टियल` की जानकारी दी। यह पहला अवसर था जब उन्होंने गीता का अध्ययन किया। पहली बार में ही गीता से उनके युवा मन को बल मिला और धीरे-धीरे गीता उनके जीवन की सूत्रधार बन गई। "इसके अध्ययन ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी।" इसके कुछ ही दिनों बाद उनके एक ईसाई मित्र ने उनका परिचय 'बाइबल` से करवाया। उन्होंने बाइबल का अध्ययन किया। यहीं पर उन्होंने बुद्ध की जीवनी से उन्हें काफी प्रेरणा मिली। इन सभी पुस्तकों से उनका युवा मन आंदोलित हुआ। उनके चिंतन में इनका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।

परीक्षा पास करने के बाद तीन वर्षों के पश्चात गांधीजी 1891 में पुनः भारत लौटे। तीन वर्ष तक उन्होंने माँ को दिये वचन का पालन किया। किसी युवक द्वारा अपनी प्रतिज्ञा का विदेशी सरजमीं पर पालन करना निश्चित ही इसकी महानता को दर्शाता है। वे बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। 





व्यावसायिक जीवन की शुरूआत

बम्बई में जहाज से उतरते ही एक अत्यंत दुखद समाचार सुनने को मिला। इस समाचार ने उन्हें हिला कर रख दिया। समाचार यह था कि जब वह इंग्लैंड में थे तभी उनकी माँ चल बसी थीं। परिवरवालों ने जान-बूझकर उनसे यह खबर छिपा रखी थी, ताकि वे अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें।

कुछ समय राजकोट में बिताने के पश्चात् गांधीजी ने बम्बई आकर वकालत करने का निश्चय किया। कुछ दिनों तक वे यहाँ रहे। किंतु अदालत के माहौल से वे क्षुब्ध हो गये। रिश्वत, झूठ, साजिश और वकीलों की घटिया दलीलों से उन्हें घृणा होने लगी। इसलिए मौका मिलते ही, वे यहाँ से अन्य कहीं और जाने के लिए तैयार बैठे थे।

अपने आपको बम्बई में असफल होता देख वे एक फिर राजकोट चले गये। यहाँ भी उन्हें सुकून नहीं मिला। इसी बीच उन्हें वह मौका मिल गया जिसकी उन्हें तलाश थी। दक्षिण अफ्रीका का स्थित भारतीय मुस्लिम फर्म दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी ने अपने मुकदमे की पैरवी के लिए दक्षिण अफ्रीका में उन्हें आमंत्रित किया। दक्षिण अफ्रीका का यह प्रस्ताव उन्हें भा गया। वर्ष 1893 के अप्रैल महीने में चौबीस वर्षीय गांधीजी दक्षिण अफ्रीका चले गये।

जहाज छ सप्ताह में डरबन पहुँचा। वहाँ अब्दुल्ला सेठ ने उनकी अगवानी की। वहाँ भारतीयों की  संख्या अधिक थी। यहाँ के अधिकांश व्यापारी मुसलमान थे। मुसलमान अपने को 'अरब` तो पारसी अपने आपको 'पर्शियन` कहलाना पसंद करते थे। यहाँ भारतीयों को, चाहे वो कोई भी काम क्यों न करता हों, किसी भी धर्म जाति के क्यों न हों, यूरोपीय उन्हें 'कुली` कहते थे। दक्षिण अफ्रीका के एकमात्र बैरिस्टर एम. के. गांधी शीघ्र ही 'कुली बैरिस्टर` के नाम से जाने जाने लगे।

डरबन में एक सप्ताह बिताने के बाद गांधीजी ट्रंसवाल की राजधानी प्रिटोरिया जाने को तैयार हुए। उनके मुवक्किल के मुकदमे की सुनवाई वहीं होनी थी। अब्दुल्ला ने उन्हें प्रथम दर्जे का टिकट खरीद कर दिया। जब गाड़ी नाताल की राजधानी मार्टिजबर्ग पहुँची, तो रात 9 बजे के करीब एक श्वेत यात्री डिब्बे में आया। उसने रेल कर्मचारीयों की उपस्थिति में गांधीजी को 'सामान्य डिब्बे` में जाने का आदेश दिया। गांधीजी ने इसे मानने से इंकार कर दिया। इसके बाद एक सिपाही की मदद से उन्हें बलपूर्वक उनके सामान के साथ डिब्बे के बाहर ढकेल दिया गया। उस रात कड़ाके की ठंड थी। ठंड की उस रात में प्रतिक्षा कक्ष में बैठे गांधीजी सोचने लगे : ृमैं अपने अधिकारों के लिए लडूँ या फिर भारत वापस लौट जाउ?ृ अंत में उन्होंने अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने का निश्चय किया।

अगले दिन आरक्षित बर्थ पर यात्रा करते हुए गांधीजी चार्ल्सटाउन पहुँचे। यहाँ एक और दिक्कत उनका इंतजार कर रही थी। यहाँ से उन्हें जोहान्स्बर्ग के लिए बग्गी पकड़नी थी। पहले तो एजेंट उन्हें यात्रा की अनुमति देने के पक्ष में ही नहीं था, पर गांधीजी के आग्रह पर उसने उन्हें अनुमति तो दे दी। लेकिन बग्गी में नहीं बल्कि कोचवान के साथ बाहर बक्से पर बैठ कर उन्हें यात्रा करनी थी। गांधीजी अपमान के इस कड़वे घूंट को भी पी गये। लेकिन कुछ देर बाद जब उस सहयात्री ने गांधीजी को पायदान के पास बैठने को कहा, ताकि वही खुली हवा और सिगारेट का आनंद कोचवान के पास बैठ कर ले सके, तो गांधीजी ने इंकार कर दिया। इस पर उस आदमी ने गांधीजी की खूब पिटाई की। कुछ यात्रियों ने बीच-बचाव किया और गांधीजी को उनकी जगह पुनः दे दी गई।

प्रिटोरिया तक की यात्रा के अनुभवों ने, ट्रंसवाल में भारतीयों की स्थिति का उन्हें आभास करा दिया था। सामाजिक न्याय के पक्षधर गांधीजी इस संबंध में कुछ करना चाहते थे। वे तैय्यब सेठ के पास गये। मुकदमा उसके ही खिलाफ चल रहा था। उससे उन्होंने मित्रता कर ली, यह एक विशिष्ट प्रयास था। उसकी मदद से उन्होंने ट्रंसवाल की राजधानी में रहने वाले सभी भारतीयों की एक बैठक बुलाई। बैठक एक मुसलमान व्यापारी के घर पर हुई और गांधीजी ने बैठक को संबोधित किया। अपने जीवन में गांधीजी का यह पहला भाषण था। उन्होंने भारत से आने वाले सभी धर्मों एवं जातियों के लोगों से भेदभाव मिटाने का आग्रह किया। साथ ही एक स्थायी संस्था बनाने का सुझाव दिया ताकि भारतीयों के अधिकारों की सुरक्षा की जा सके और समय-समय पर अधिकारीयों के समक्ष उनकी समस्याओं को उठाया जा सके।

नाताल की उपेक्षा ट्रंसवाल में भारतीयों की स्थिति बदतर थी। यहाँ भारतीयों को असमानताओं, तिरस्कारों और कठिनाइयों का अधिक सामना करना पड़ता था। यहाँ के कठोर कानून की मार हर भारतीय झेल रहा था। ट्रंसवाल में प्रवेश के लिए उन्हें तीन पाउंड का 'प्रवेश कर` देना पड़ता था। रात्रि में नौ बजे के बाद बाहर निकलने के लिए अनुमति पत्र लेना पड़ता था। वे सार्वजनिक फुटपाथों पर नहीं चल सकते थे, उन्हें पशुओं के साथ गलियों के रास्ते में ही चलना पड़ता था। एक बार तो राष्ट्रपति क्रूगर के घर के निकट फुटपाथ पर चलने के लिए गांधीजी पुलिसवालों के हत्थे चढ़ गये थे।

कुछ काल के लिए भारतीयों की दुर्दशा की ओर से गांधीजी का ध्यान हट गया - व्यावहारिक कारण यह था कि उन्हें अब्दुल्ला सेठ की मुकदमे की ओर ध्यान देना था, जिसके लिए वे यहाँ आये थे। उन्होंने अब्दुल्ला सेठ और उनके चचेरे भाई तैय्यब सेठ के बीच सुलह करा दी। उनके इस शांतिपूर्ण समझौते की चर्चा वहाँ का हर भारतीय करता रहा। गांधीजी का एक वर्ष समाप्त हो गया था, और मुकदमा तय करने के बाद वे स्वदेश लौटने की तैयारी करने लगे थे। वे डरबन लौट आये।

अब्दुल्ला सेठ ने उनके सम्मान में एक विदाई समारोह आयोजित किया। इस विदाई समारोह के दौरान गांधीजी की नजर समाचार पत्र में छपी एक खबर पर पड़ी, जो नाताल के 'इंडियन फ्रैंचाइज़ बिल` के बारे में था। इस विधेयक के जरिये वहाँ के भारतीयों का मताधिकार छीना जा रहा था। गांधीजी ने इसके गंभीर परिणामों से लोगों को अवगत कराया। भारतीय मूल के लोग गांधीजी से वहाँ ठहरने और उनका मार्गदर्शन करने की चिरौरी करने लगे। गांधीजी ने वहाँ एक महिना ठहरने की बात इस शर्त पर मान ली कि सभी लोग अपने मताधिकार के लिए आवाज उठायेंगे।

गांधीजी ने वहाँ स्वयंसेवकों का एक संगठन खड़ा किया। वहाँ के विधानमंडल के अध्यक्ष को तार भेजकर यह अनुरोध किया कि वे भारतीयों का पक्ष सुने बिना मताधिकार विधेयक वर बहस न करें। लेकिन इसे नजरंदाज कर मताधिकार विधेयक पपरित कर दिया गया। गांधीजी हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने लंदन में उपनिवेशों के मंत्री लार्ड रिपन के समक्ष अपनी वह याचिका पेश की, जिस पर अधिकाधिक नाताल भारतीयों के हस्ताक्षर थे।

बैचेनी भरा एक महीना बीत जाने के बाद छोड़ना गांधीजी के लिए असंभव लगने लगा था। डरबन के भारतीयों की समस्याओं ने उन्हें रोक लिया। लोगों ने उनसे वहीं वकालत करने का आग्रह किया। समाज सेवा के लिए पारिश्रमिक लेना उनके स्वभाव के विरूद्ध था। लेकिन उनकी बैरिस्टर की गरिमा के अनुरूप तीन सौ पाउंड प्रतिवर्ष की जरूरतवाले धन की व्यवस्था भारतीस मूल के लोगों द्वारा की गई। इसके बाद गांधीजी ने अपने आपको जनसेवा में समर्पित कर दिया। नाताल के सर्वोच्च न्यायालय में काफी परेशानियाँ झेलने के बाद अंत में उन्हें वहाँ के प्रमुख न्यायाधीश ने वकील के रूप में शपथ दिलाई। संघर्ष करके गांधीजी काले-गोरे का भेद मिटाकर सर्वोच्च न्यायालय के वकील बन गये।  



दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी का सत्याग्रह

गांधीजी के निःस्वार्थ कार्यों और वहाँ जमी वकालत को देखते हुए तो ऐसा लगने लगा था कि जैसे वह नाताल में बस गये हों। सन् 1896 के मध्य में वह अपने पूरे परिवार को अपने साथ नाताल ले जाने के उद्देश से भारत आये। अपनी इस यात्रा के दौरान उनका लक्ष्य दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के लिए देश में यथाशक्ति समर्थन पाना और जनमत तैयार करना भी था।

राजकोट में रहकर उन्होंने प्रवासी भारतीयों की समस्या पर एक पुस्तक लिखी और उसे छपवाकर देश के प्रमुख समाचार पत्रों में उसकी प्रतियाँ भेजी। इसी समय राजकोट में फैली महामारी प्लेग अपना उग्र रूप धारण कर चुकी थी। गांधीजी स्वयंसेवक बनकर अपनी सेवाँए देने लगें। वहाँ की दलित बस्तियों में जाकर उन्होंने प्रभावितों की हर संभव सहायता की।

अपनी यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात देश के प्रखर नेताओं से हुई। बदरुद्दीन तैय्यब, सर फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बेनर्जी, लोकमान्य जिलक, गोखले आदि नेताओं के व्यक्तित्व का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन सभी के समक्ष उन्होंने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं को रखा। सर फिरोजशहा मेहता की अध्यक्षता में गांधीजी द्वारा भाषण देने का कार्यक्रम बंबई में संपन्न हुआ। इसके बाद कलकत्ता में गांधीजी द्वारा एक जनसभा को संबोधित किया जाना था। लेकिन इससे पहले कि वे ऐसा कर पाते, दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों का एक अत्यावश्यक तार उन्हें आया। इसके बाद वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वर्ष 1896 के नवंबर महीने में डरबन के लिए रवाना हो गये।

भारत में गांधीजी ने जो कुछ किया और कहा उसकी सही रिपोर्ट जो नाताल नहीं पहुँची। उसे बढ़ा-चढ़ाकर तोड़-मरोड़ कर वहाँ पेश किया गया। इसे लेकर वहाँ के गोरे वाशिंदे गुस्से से आग बबुला हो उठे थे। 'क्रूरलैंड` नामक जहाज से जब गांधीजी नाताल पहुँचे तो वहाँ के गोरों ने उनके साथ अभद्र व्यवहार किया। उन पर सड़े अंडों और कंकड़ पत्थर की बौछार होने लगी। भीड़ ने उन्हें लात-घूसों से पीटा। अगर पुलिस सुपरिंटेंडंट की पत्नी ने बीच-बचाव न किया होता तो उस दिन उनके प्राण पखेरू उड़ गये होते। उधर लंदन के उपनिवेश मंत्री ने गांधीजी पर हमला करने वालों पर कार्रवाई करने के लिए नाताल सरकार को तार भेजा। गांधीजी ने ओरपियों को पहचानने से इंकार करते हुए उनके विरुद्ध कोई भी कार्रवाई न करने का अनुरोध किया। गांधीजी ने कहा, "वे गुमराह किये गये हैं, जब उन्हें सच्चाई का पता चलेगा तब उन्हें अपने किये का पश्चाताप खुद होगा। मैं उन्हें क्षमा करता हूँ।" ऐसा लग रहा था जैसे ये वाक्य गांधीजी के न होकर उनके भीतर स्पंदित हो रहे किसी महात्मा के हों।

अपनी दक्षिण अफ्रीका की दूसरी यात्रा के बाद गांधीजी में अद्भुत बदलाव आया। पहले वे अँग्रेजी बैरिस्टर के माफिक जीवन जीते थे। लेकिन अब वे मितव्ययिता को अपने जीवन में स्थान देने लगे। उन्होंने अपने खर्च और अपनी आवश्यकताओं को कम कर दिया। गांधीजी ने 'जीने की कला` सीखी। कपड़ा इत्री करने कपड़ा सिलने आदि काम वे खुद करने लगे। वे अपने बाल खुद काटते। साफ-सफाई भी करते। इसके अलावा वे लोगों की सेवा के लिए भी समय निकाल लेते। वे प्रतिदिन दो घंटे का समय एक चैरिटेबल अस्पताल में देते, जहाँ वे एक कंपाउंडर की हैसियत से काम करते थे। वे अपने दो बेटों के साथ-साथ भतीजे को भी पढ़ाते थे।

वर्ष 1899 में बोअर-युद्ध छिड़ा। गांधीजी की पूरी सहानुभूति बोअर के साथ थी जो अपनी आजादी के लिए लड़ रहे थे। गांधीजी ने सभी भारतीयों से उनका सहयोग देने की अपील की। उन्होंने लोगों को इकठ्ठा किया और डॉ. बूथ की मद्द से भारतीयों की एक एंबुलैंस टुकड़ी बनाई। इस टुकड़ी में 1,100 स्वयंसेवक थे जो कि सेवा के लिए तत्पर थे। इस टुकड़ी का कार्य घायलों की देखभाल में जुटना था। गांधीजी के नेतृत्व में सभी स्वयंसेवकों ने अपनी अमूल्य सेवाएँ दी। गांधीजी जाति, धर्म, रूप, रंग भेद से दूर रहकर केवल मानवता की सेवा में जुटे थे। उनके इस कार्य की प्रशंसा में वहाँ के समाचार पत्रों ने खूब लिखा।

1901 में युद्ध समाप्त हो गया। गांधीजी ने भारत वापसी का मन बना लिया था। शायद उन्हें दक्षिण अफ्रीका में अच्छी सफलता मिली थी, लेकिन वे 'रूपयों के पीछे न भागने लगें` इस भय के कारण भी वे भारत आने के पक्ष में थे। लेकिन नाताल के भारतीय उन्हें सरलता से छोड़ने वाले नहीं थे। आखिर इस शर्त पर उन्हें इजाजत दी गई कि यदि साल-भर के अंदर अगर उनकी कोई आवश्यकता आ पड़ी तो वे भारतीय समाज के हित के लिए पुनः लौट आयेंगे।

वे भारत लौटे। सबसे पहले कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सभा में शामिल हुए। यहाँ पर पहली बार उन्हें ऐसे लगा जैसे भारतीय राजनेता बोलते अधिक हैं और काम कम करते हैं। गोखले के यहाँ कुछ दिन बिताने के बाद वे भारत यात्रा के लिए निकल पड़े। उन्होंने तीसरे दर्जे के डिब्बे में यात्रा करने का निश्चय किया ताकि वे लोगों (गरीबों) की तकलीफें जानने के साथ-साथ स्वयं भी उसके अनुरूप ढल सकें। उन्हें इस बात दुख हुआ कि तीसरे दर्जे में भारतीय रेल अधिकारीयों द्वारा काफी लापरवाही बरती जाती है। इसके इलावा यात्रियों की गंदी आदतें भी डिब्बे की दुर्दशा के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार थीं।

अब गांधीजी भारत में ही रहना चाहते थे। बम्बई लौटकर उन्होंने अदालत में काम करने की कोशिश की, लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों को उनकी जरूरत आ पड़ी। "जोसेफ चैम्बरलेन दक्षिण अफ्रीका आ रहे हैं, कृपया जल्द लौटें।" दक्षिण अफ्रीका के भारतीय द्वारा भेजे गये इस तार को पाते ही गांधीजी अपने वचन का पालन करते हुए वहाँ के लिए चल पड़े। भारतीयों के लिए जोसेफ के मन में घृणा और उपेक्षा की भावना थी। उसने घोषणा कर दी थी कि यदि भारतीयों को वहाँ रहना है तो यूरोपीय लोगों को 'संतुष्ट` रखना ही होगा। भारतीयों की समस्याओं को लेकर गांधीजी चैम्बरलेन से मिले, किंतु गांधीजी को निराश होना पड़ा। इसके बाद गांधीजी ने जोहान्सबर्ग में रहकर वहाँ के सुप्रीम कोर्ट में वकालत के लिए प्रवेश लिया। यहाँ रहकर उन्होंने अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की।

यहाँ के जुलू युद्ध से उनके मन में जो द्वंद्व उपजा था उसने उनके निजी असमंजस-ब्रह्मचर्य को सुलझा दिया था। उन्हें लगा कि अब समय आ गया है कि उन्हें जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेना चाहिए। गांधीजी के लिए इस व्रत का अर्थ न केवल शरीर की शुद्धि से था, अपितु यह मन के शुद्धिकरण का भी माध्यम था, और वे वर्षों तक अपने चेतन या अचेतन मस्तिष्क से कामासक्ति के शारीरीक आनंद के नामो-निशान को मिटाने के लिए संघर्ष करते रहे।

गांधीजी ने सुबह उठते ही गीता पढ़ने का नियम बना रखा था। वे उसके विचारों का अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करने लगे। 'अव्यावसायिकता' की जो बात गीता में की गई है, उसे उन्होंने अपने भीतर आत्मसात करने का निश्चय किया। गीता के बाद रसकिन की पुस्तक 'अन टु दी लास्ट' का गहरा प्रभाव उन पर पड़ा। इस पुस्तक का अध्ययन उन्होंने फीनिक्स कॉलनी में अपना योगदान दिया।

लेकिन गांधीजी फीनिक्स में अधिक दिनों तक नहीं टिके। वे जोहान्सबर्ग गये, जहाँ बाद में उन्होंने एक आदर्श कॉलनी की स्थापना की, जो कि शहर से बीस मील की दूरी पर थी। उन्होंने इसका नाम 'टालस्टाय फार्म` रखा। समूचे भारत में आज बड़ी तेजी से बुनियादी शिक्षा की जो प्रणाली जड़ें जमाती जा रही हैं, उसको टालस्टाय फार्म में बड़ी मेहनत से विकसित किया गया था। एक बार जब फीनिक्स बस्ती में एक 'नैतिक भूल` का पता चला, तो गांधीजी ने अपना सभी सामाजिक कार्य बंद कर दिया और वे ट्रंसवाल से नाताल चले गये। जहाँ युवाओं के पाप का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने सात दिन का उपवास रखा।

ट्रंसवाल की सरकार ने एक कानून बनाने की घोषणा की थी, जिसके मुताबिक आठ वर्ष की आयु से अधिक के हर भारतीय को अपना पंजीकरण कराना होगा। उसकी अंगुलियों के निशान लिये जायेंगे और उसे प्रमाण पत्र लेकर हमेशा अपने पास रखना होगा। गांधीजी ने इस काले कानून का विरोध किया। लोगों को जुटाकर सभाएँ की। जनवरी 1908 में गांधीजी को नके अन्य सत्याग्रहियों के साथ दो महीने के लिए जेल भेज दिया गया।

इसके बाद जनरल स्मटस् ने गांधीजी के सामने प्रस्ताव रखा - यदि भारतीय स्वेच्छा से पंजीकरण करवा लेंगे, तो अनिवार्य पंजीकरण का कानून रद्द कर दिया जाएगा। समझौता हो गया और स्मटस् ने गांधीजी सं कहा कि अब वे आजाद हैं। जब गांधीजी ने अन्य भारतीय बंदियों के बारे में पूछा तब जनरल ने कहा कि बाकी लोगों को अगली सुबह रिहा कर दिया जायेगा। गांधीजी जनरल के वचन को सत्य मानकर जोहान्सबर्ग लौटे।

इधर स्मटस् ने अपना वचन भंग कर दिया। इसे लेकर भारतीय आग बबूला हो उठे। जोहान्सबर्ग में 16 अगस्त 1908 को विशाल सभा हुई, जिसमें काले कानून के प्रति विरोध प्रदर्शित करते हुए लोगों ने पंजीकरण प्रमाण पत्रों की होली जलाई। गांधीजी खुद कानून का उल्लंघन करने के लिए आगे बढ़े। एक बार फिर 10 अक्तूबर 1908 को वे गिरफ्तार हुए। इस बार उन्हें एक महीने के कठोर श्रम कारावास की सजा सुनाई गई। गांधीजी का संघर्ष जारी था। फरवरी 1909 में एक बार फिर उन्हें गिरफ्तार कर तीन महीने के कठोर कारावास की सजा दी गई। इस बार की जेल यात्रा में उन्होंने काफी वाचन किया। यहाँ वे नित्य प्रार्थना भी करते थे।

वर्ष 1911 में गोखलेजी दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर आये। बोअर जनरलों ने गांधीजी और गोखले से भारतीयों के खिलाफ अधिक भेदभाव वाली कुव्यवस्थाओं को समाप्त करने का वादा किया। लेकिन व्यक्ति कर की व्यवस्था बंद नहीं की गई। गांधीजी संघर्ष करने के लिए तैयार हो गये। महिलाएँ जो अब तक आंदोलन में सक्रिय नहीं थीं, गांधीजी के आवाहन पर उठ खड़ी हुईं। उनमें बलिदान की मशाल जल उठी। अब सत्याग्रह नये तेवर के रूप में सामने आ रहा था। गांधीजी ने निश्चय किया कि महिलाओं का एक जत्था कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए ट्रंसवाल से नाताल जायेगा। वह भी बिना कर दिये। महिलाएँ इस संघर्ष यज्ञ में बढ़-चढ़कर शामिल हुईं। उनकी पत्नी कस्तूरबा भी इसमें शामिल हुईं। 

इस कानून को तोड़ने का प्रयास कर रहीं महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधीजी के मार्गदर्शन में कई जगह हड़तालें हुईं। अहिंसा का मार्ग अपनाते हुए गांधीजी ने अपना सत्याग्रह शुरू किया। गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। कई सत्याग्रही कमर कस चुके थे। गांधीजी का सत्याग्रह रंग ले चुका था। कई लोगों ले अपनी गिरफ्तारीयाँ दीं। पुलिस की पिटाई और भुखमरी के बावजूद सत्याग्रही अपने मार्ग पर अटल थे।

गांधीजी का सत्याग्रह एक अचूक हथियार सिद्ध हुआ। अंततः समझौता हुआ और "भारतीय राहत विधेयकृ पास हुआ। कानून में यह प्रावधान किया गया कि बिना अनुमति भारतीय एक प्रांत से दूसरे प्रांत में तो नहीं जा सकते, लेकिन यहाँ जन्में भारतीय केप कॉलनी में जाकर रह सकेंगे। अलावा इसके भारतीय पद्धति के विवाहों को वैध घोषित किया गया। अनुबंधित श्रमिकों पर से व्यक्ति कर हटा लिया गया, साथ ही बकाया रद्द कर दिया गया।

अब दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी का कार्य पूर्ण हो चुका था। 18 जुलाई 1914 को वे गोखले के बुलावे पर समुद्री मार्ग से अपनी पत्नी के साथ इंग्लैंड रवाना हुए। जाने से पहले जेल में अपने द्वारा बनाई गई चपलों की जोड़ी उन्होंने स्मटस् को भेंट दी। जनरल स्मटस् ने इसे पच्चीस वर्षों तक पहना। बाद में उन्होंने लिखा, "तब से मैंने कई गर्मियों में इन चपलों को पहना है, हालांकि मुझे यह अहसास है कि इतने महान व्यक्ति की मैं किसी प्रकार बराबरी नहीं कर सकता।"




भारत में सत्याग्रह की शुरूआत

गांधीजी अप्रैल 1893 में दक्षिण अफ्रीका गये थे। जनवरी 1915 में महात्मा बनकर वे भारत लौटे। अब उनके जीवन का एक ही मकसद था - लोगों की सेवा। गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में जितने लोकप्रिय थे, उतना भारत में नहीं, क्योंकि अभी तक उनका संघर्ष, सत्याग्रह, आंदोलन दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के लिए ही सीमित था। रवींद्रनाथ टगौर ने इस महात्मा की भारत वापसी का स्वागत करते हुए शांति निकेतन में आने का निमंत्रण भी दिया। गांधीजी शांति निकेतन और भारतीय परिस्थिती से ज्यादा परिचित नहीं थे। गोखले की इच्छा थी कि गांधीजी भारतीय राजनीति में सक्रिय योगदान दें। अपने राजनीतिक गुरू गोखले को उन्होंने वचन दिया कि वे अगले एक वर्ष भारत में रहकर देश के हालात का अध्ययन करेंगे। इस दौरान 'केवल उनके कान खुले रहेंगे, मुँह पूरी तरह बंद रहेगा।' एक तरह से यह गांधीजी का एक वर्षीय 'मौन व्रत' था।

वर्ष की समाप्ति के समय गांधीजी अहमदाबाद स्थित साबरमती नदी के तट के पास आकर बस गये। उन्होंने इस सुंदर जगह पर साबरमती आश्रम बनाया। इस आश्रम की स्थापना उन्होंने मई 1915 में की थी। वे इसे 'सत्याग्रह आश्रम' कहकर संबोधित करते थे। आरंभ में इस आश्रम से कुल 25 महिला-पुरुष स्वयंसेवक जुड़े। जिन्होंने सत्य, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह और अस्तेय के मार्ग पर चलने का संकल्प लिया। इन स्वयंसेवकों ने अपना पूरा जीवन 'लोगों की सेवा में' बिताने का निश्चय किया।

गांधीजी का 'मौन व्रत' समाप्त हो चुका था। पहली बार भारत में गांधीजी सार्वजनिक सभा में भाषण देने के लिए तैयार थे। 4 फरवरी 1916 के दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में छात्रों, प्रोफेसरों, महाराजाओं और अंग्रेज अधिकारीयों की उपस्थिति में उन्होंने भाषण दिया। इस अवसर पर वाइसराय भी स्वयं उपस्थित था। एक हिन्दू राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में अंग्रेजी भाषा में बोलने की अपनी विवशता पर खेद प्रकट करते हुए उन्होंने भाषण की शुरूआत की। उन्होंने भारतीय राजाओं की तड़क-भड़क, शानो-शौकत, हीरे-जवाहरातों तथा धूमधाम से आयोजनों में होने वाली फिजूल खर्ची की चर्चा की। उन्होंने कहा,"एक ओर तो अधिकांश भारत भूखों मर रहा है और दूसरी ओर इस तरह पैसों की बर्बादी की जा रही है।" उन्होंने सभा में बैठी राजकुमारीयों के गले में पड़े हीरे-जवाहरातों की ओर देखते हुए कहा कि 'इनका उपयोग तभी है, जब ये भारतवासियों की दरिद्रता देर करने के काम आयें।' कई राजकुमारीयों और अंग्रेज अधिकारीयों ने सभा का बहिष्कार कर दिया। उनका भाषण देश भर में चर्चा का विषय बन गया था।

भारत में गांधीजी का पहला सत्याग्रह बिहार के चम्पारन में शुरू हुआ। वहाँ पर नील की खेती करने वाले किसानों पर बहुत अत्याचार हो रहा था। अंग्रेजों की ओर से खूब शोषण हो रहा था। ऊपर से कुछ बगान मालिक भी जुल्म छा रहे थे। गांधीजी स्थिति का जायजा लेने वहाँ पहुँचे। उनके दर्शन के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। किसानों ने अपनी सारी समस्याएँ बताईं। उधर पुलिस भी हरकत में आ गई। पुलिय सुपरिटेंडंट ने गांधीजी को जिला छोड़ने का आदेश दिया। गांधीजी ने आदेश मानने से इंकार कर दिया। अगले दिन गांधीजी को कोर्ट में हाजिर होना था। हजारों किसानों की भीड़ कोर्ट के बाहर जमा थी। गांधीजी के समर्थन में नारे लगाये जा रहे थे। हालात की गंभीरता को देखते हुए मेजिस्ट्रेट ने बिना जमानत के गांधीजी को छोड़ने का आदेश दिया। लेकिन गांधीजी ने कानून के अनुसार सजा की माँग की।

फैसला स्थगित कर दिया गया। इसके बाद गांधीजी फिर अपने कार्य पर निकल पड़े। अब उनका पहला उद्देश लोगों को 'सत्याग्रह' के मूल सिद्धातों से परिचय कराना था। उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्त करने की पहली शर्त है - डर से स्वतंत्र होना। गांधीजी ने अपने कई स्वयंसेवकों को किसानों के बीच में भेजा। यहाँ किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए ग्रामीण विद्यालय खोले गये। लोगों को साफ-सफाई से रहने का तरीका सिखाया गया। सारी गतिविधियाँ गांधीजी के आचरण से मेल खाती थीं। स्वयंसेवकों ले मैला ढोने, धुलाई, झाडू-बुहारी तक का काम किया। लोगों को उनके अधिकारों का ज्ञान कराया गया।

चंपारन के इस गांधी अभियान से अंग्रेज सरकार परेशान हो उठी। सारे भारत का ध्यान अब चंपारन पर था। सरकार ने मजबूर होकर एक जाँच आयोग नियुक्त किया, गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया।। परिणाम सामने था। कानून बनाकर सभी गलत प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया। जमींदार के लाभ के लिए नील की खेती करने वाले किसान अब अपने जमीन के मालिक बने। गांधीजी ने भारत में सत्याग्रह की पहली विजय का शंख फूँका। चम्पारन ही भारत में सत्याग्रह की जन्म स्थली बना।

गांधीजी चंपारन में ही थे, तभी अहमदाबाद के मिल-मजदूरों द्वारा तत्काल साबरमती बुलाया गया। मिल-मजदूरों के खिलाफ मिल-मालिक कठोर कदम उठाने जा रहे थे। दोनों पक्षों के बीच गांधीजी को सुलह करानी थी। जाँच-पड़ताल और दोनों पक्षों से बातचीत करने के बाद गांधीजी का निर्णय मजदूरों के पक्ष में गया। लेकिन मिल-मालक मजदूरों को कोई भी आश्वासन देने के लिए तैयार न थे। इसलिए गांधीजी ने मजदूरों का उत्साह घटता गया और हिंसा की आशंका बढ़ने लगी। गांधीजी ने इसे बनाये रखने के लिए खुद उपवास पर बैठ गये। इसके बाद मालिकों और मजदूरों का एक बैठक हुई जिसमें बातचीत करके समस्या का हल निकाला गया और हड़ताल समाप्त हो गई।

गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों की फसलें बरबाद हो चुकी थी। गरीब किसानों को सरकार द्वारा लगान चुकाने के लिए दबाव डाला जा रहा था। गांधीजी ने खेड़ा जिले में एक गांव से दूसरे गांव तक की पदयात्रा आरंभ की। गांधीजी ने 'सत्याग्रह' का आवाहन किया। उन्होंने किसानों से कहा कि वे तब तक सत्याग्रह के मार्ग पर चलें, जब तक सरकार उनका लगान माफ करने की घोषणा न करे। चार महीने तक यह संघर्ष चला। इसके बाद सरकार ने गरीब किसानों का लगान माफ करने की घोषणा की। गांधीजी एक बार फिर सफल हुए।


रोलैक्ट एक्ट विरोध और दांडी यात्रा

यह 'रौलेट एक्ट' ही था, जिसके कारण गांधीजी ने भारतीय राजनीति में कदम रख। वर्ष 1919 से लेकर 1948 तक भारतीय राजनीति के केंद्र में महात्मा गांधी ही छाये रहे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वक नायक बने रहे। राजनीति में सक्रिय होते ही गांधीजी ने भारतीय राजनीति का रूप-रंग ही बदल डाला। उनके संघर्ष के कारण लोगों ने उन्हें देवता तक मान लिया।

यूँ तो रौलेट बिल कोई सामान्य नहीं था। इसे लेकर पूरे भारत में खलबली मची थी। गांधीजी भी यह तय करने में जुटे थे कि इस बिल के विरोध का रूप कैसा हो ? उनकी चिंता का विषय हिंसा था। वे नहीं चाहते थे कि अपार उत्साह में विरोध करने में जुटा जनमानस हिंसा पर उतारू हो। अंत में गांधीजी के मन में यह विचार आया कि क्यों न विरोध दर्ज कराने के लिए सभी क्षेत्रों में शांतिपूर्ण हड़ताल की जाये।

गांधीजी के आवाहन पर देशव्यापी हड़ताल शुरू हुई। हिंदु-मुस्लिम के उत्साह ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया। गांधीजी तक को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि लोगों का इतना जबरदस्त समर्थन मिलेगा। अंग्रेज सरकार के भी कान खड़े हो गये। ऐसा लगा कि जैसे कोई भूकंप ब्रिटिश साम्राज्य को हिला रहा हो। दिल्ली से लेकर अमृतसर तक गांधीजी का जादू छा गया था। गांधीजी पंजाब जाना चाहते थे, लेकिन उन्हें रास्ते में ही गिरफ्तार कर बंबई वापस लाया गया।

गांधीजी की गिरफ्तारी की खबर जंगल में लगी आग की तरह फैल गयी। लोगों की भीड़ विभिन्न शहरों में जुटने लगीं, कुछ छिटपुट हिंसक घटनायें भी हुई। जब गांधीजी अहमदाबाद लौटे तो उन्हें सूचना मिली कि क्रोधित भीड़ ने एक पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी। गांधीजी ने कहा, 'यदि मेरे सीने में खंजर घोंप दिया जाता तो भी मुझे इतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी कि हिंसा की इस घटना से हुई है।' इस घटना से वे बेचैन हो उठे। गांधीजी ने सत्याग्रह वापस ले लिया और इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए तीन दिनों का उपवास रखा।

जिस दिन 13 अप्रैल 1919 को गांधीजी ने तीन दिन के उपवास की घोषणा की, उसी दिन पंजाब के अमृतसर जिले के जालियाँवाला बाग में भीषण घटना घटी। ब्रिटिश जनरल डायर ने अपनी फौज के साथ जालियाँवाला बाग में धावा बोल दिया। शांत, निरपराध जनता पर बेरहमी से कई चक्र गोलियाँ दागी गयीं। बाद में सरकार ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि इस घटना में कुल 400 लोग मारे गये और 1,000 से 2,000 लोग मारे गये और 3,600 लोग गंभीर रूप से जख्मी हुए। इसके खिलाफ पूरा देश इकट्ठा हुआ। हालात की गंभीरता को देखते हुए पंजाब में 'मार्शल लॉ' लागू हुआ। यह कार्रवाई इतनी अमानवीय थी कि स्वयं सर वैलेंटाइन ने कहा कि, ृयह दिन एक एकसा 'काला दिन' था, जिसे ब्रिटिश सरकार चाहकर भी नहीं भूल पायेगी।ृ अब गांधीजी के लिए चुप बैठना असंभव था।

गांधीजी ने अब एक नये मार्ग को खोजा जो ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख दे। हिंदु-मुस्लिम को एक मंच पर लाकर उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 'असहयोग आंदोलन' शुरू करने का मंत्र दिया। किसी जादूगर की तरह उन्होंने अपना आंदोलन शुरू किया। देश के कोने-कोने तक उनका आंदोलन रंग ला रहा था। सबसे पहले इस आंदोलन की शुरूआत खुद गांधीजी ने की। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान की गई उनकी सेवा के लिए जो मेडल उन्हें मिला था, उसे उन्होंने वाईसराय को लौटा दिया। कई भारतीय विद्वानों ने अपनी पदवी लौटा दीं। कुछेक ने सरकार द्वारा दिये सम्मान को लौटाया। वकीलों ने वकालत, छात्रों ने स्कूल और कॉलेज छोड़ दिये। हजारों की संख्या में लोंगो ने गाँव-गाँव जाकर इस आंदोलन की मशाल को जलाया। सब कुछ अहिंसा का पालन करते हुए हो रहा था। विदेशी कपड़ों की होली देश के कोने-कोने में जलने लगी। लोग चरखा कातने लगे। चूल्हा-चौकों तक सिमटी भारतीय महिलाएँ भी रास्ते पर आकर प्रदर्शन करने लगीं। गांधीजी के भाषण, लेख लोगों को और भी आंदोलित कर रहे थे। 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' साप्ताहिक में छपे उनके लेचा लो काफी रस लेकर पढ़ते थे। हजारों लोगों को उठाकर जेल में बंद किया गया। कई नागरीकों पर अदालत में मुकदमे चले।

फरवरी 1922 में इस आंदोलन में उस समय ठहराव आ गया, जब उग्र भीड़ ने चौरी-चौरा में हिंसा की। इस हिंसा के समाचार सं गांधीजी काफी निराश हुए। उन्होंने आंदोलन कां स्थगित कर दिया। साथ ही जनता की इस हिंसात्मक कार्रवाई को अपराध मानते हुए उन्होंने पाँच दिन का उपवास शुरू किया। इस दौरान वे ईश्वर से प्रार्थना करके लोगों के इस कार्य के प्रति क्षमा भी माँगते रहे। आंदोलन स्थगित हुआ देख सरकार के हाथ सुनहरा मौका लगा, उसने गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया। अदालत में जज़ ने उन्हें 6 वर्ष की सजा सुनाई। साथ ही सह भी जोड़ा कि यदि इस दौरान आंदोलन थम गया तो गांधीजी की सजा और कम कर दी जायेगी। जज़ ने कहा, ृयदि ऐसा हुआ तो मुझे काफी प्रसन्नता होगी।ृ

गांधीजी के लिए यह सजा, सजा न होकर एक वरदान साबित हुई। वे अपना सारा समय प्रार्थना करने, अध्ययन करने और सूत कातने में बिताते थे। लेकिन जनवरी 1924 में वे 'एक्यूट एपेंडिसायटिस' के शिकार होकर गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। उन्हें पूना के एक अस्पताल में ले जाया गया। जहाँ एक ब्रिटिश सर्जन ने उनका सफल ऑपरेशन किया। इसके बाद सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया।

इसके बाद की स्थिति ने गांधीजी को और भी विचलित कर दिया। सांप्रदायिक दंगों में झुलसते देश को देख उनका हृदय कराहने लगा। स्थिति को देखते हुए गांधीजी ने 21 दिन उपवास का निश्चय किया। ृव्रत और प्रार्थना इसलिए ताकि मेरे देश के लोगों के दिल आपस में मिल सकें। वे एक-दूसरे के धर्म और उनकी भावनाओं को समझ सकें।ृ

अगले पाँच वर्षों तक गांधीजी ने भारतीय राजनीति में कुछ विशेष योगदान नहीं दिया। अब उनका लक्ष्य भारतीय समाज में परिव्याप्त विषमताओं को दूर करना था। लोगों की प्राथमिक आवश्यकताओं, हिंदु-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता (छूआछूत) महिलाओं की समानता, जनसंख्या समस्या आदि की ओर उन्होंने ध्यान दिया। भारतीय गाँवों के पुनर्निर्माण का स्वप्न वे देखने लगे। ूमैं चाहता हूँ कि अंग्रेजी गुलामी के साथ-साथ देश के नागरिक सामाजिक और आर्थिक गुलामी से भी मुक्ति पायें।ृ

यह भी एक सच्चाई है कि जेल सं आजाद होने के बाद गांधीजी ने देखा कि कांग्रेस बँट चुकी है। वर्ष 1929 तक कई नेता अपने-अपने स्तर पर, अलग-अलग मंच बनाकर आजादी की लड़ाई लड़ने लगे। यह बिखराव गांधीजी के मन को नहीं जँचा। एक बार फिर गांधीजी उठ खड़े हुए। राष्ट्र के नेतृत्व की कमान उन्होंने सँभाल ली। 26 जनवरी 1930 को उनके नेतृत्व में देश को आजाद कराने की शपथ देश के कोने-कोने में ली गई। यह ब्रिटिश सरकार को एक कड़ी चेतावनी थी। गांधीजी का 'पूर्ण स्वराज' का नारा देश के कोने-कोने में गूँज रहा था। अब सारे देश की नजरें साबरमती की ओर थीं।

12 मार्च 1930 को गांधीजी ने वाइसराय को सूचित किया कि वे अपने 78 अनुयाइयों के साथ दांडी यात्रा करने जा रहे हैं। आश्रम के कई सदस्य, पुरुष और महिलायें 24 दिन की ऐतिहासिक यात्रा पर रवाना हुए। गरीब किसान ब्रिटिश कानून के कारण अपनी नमक की खेती नहीं कर पर रहे थे। वैसे देखने में तो यह सामान्य मुद्दा था, लेकिन एक 'बूढ़े' द्वारा 241 मील तक की इस पैदल यात्रा ने ब्रिटिश सरकार की नींद हराम कर दी। 6 अप्रैल 1930 की सुबह गांधीजी ने सबसे पहले प्रार्थना की। इसके बाद वे नमक के खेत के पास गये और मुठ्ठी भर नमक उठाकर 'नमक कानून' को भंग कर दिया। इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर देश के कोने-कोने में गांधीजी का अनुकरण करते हुए इस कानून को लोगों ने तोड़ा। पुरुष-महिलाएँ, गाँवों के किसानों ने हजारों ने हजारों की संख्या में जुलूस निकाले। लोगों ने गिरफ्तारीयाँ दीं। पुलिस ने लाठी चार्ज किया, कई स्थलों पर पुलिस ने गोलियाँ भी चलाईं। 4 मई की रात गांधीजी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ ही हफ्तों में हजारों लोग जेल में ढकेल दिये गये।

नवंबर 1930 में प्रथम गोलमेज परिषद आयोजित हुई। सरकार ने देश में फैले इस आंदोलन की समीक्षा की। इस सम्मेलन की समाप्ति वाले सत्र में 19 जनवरी 1931 के दिन रामसे मैकडोनाल्ड ने यह आशा व्यक्त की कि दूसरे गोलमेज परिषद में कांग्रेस भी शामिल होगी। गांधीजी और अन्य कांग्रेसी नेताओं को बिना किसी शर्त के 26 जनवरी को रिहा कर दिया गया। ठीक उसके एक वर्ष बाद जब स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रतिज्ञा की गई थी। जल्द ही 14 फरवरी को गांधीजी और इरविन के बीच में शुरू हुई। कई असहमतियों के बाद भी बातचीत जारी रही। साढ़े तीन घंटे की पहली वार्ता 17 फरवरी को हुई और इसके बाद कई दिनों तक चली। 5 मार्च 1931 को गांधी-इरविन समझौता हो गया। गांधीजी ने कहा - 'यह समझौता सशर्त है।' इस समझौते से भारत में शांति व्यवस्था कायम होनी थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया गया था। सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया था। इसके साथ ही समुद्र तटों के आसपास नमक की बिक्री खुली कर दी गई। राजनैतिक दृष्टि से सबसे बड़ा ऐतिहासिक लाभ यह हुआ कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, लंदन में होने वाली गोलमेज सम्मेलन के दूसरे दौर में भाग लेने को सहमत हो गई।

द्वितीय गोलमेज परिषद और `ख्रिसमस गिप्ट'

गांधी-इरविन समझौता हो चुका था। द्वितीय गोलमेल परिषद में भाग लेने के लिए गांधीजी 29 अगस्त 1931 को लंदन के लिए रवाना हुए। वे परिषद में भाग लेने वाले कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधी थे। गांधीजी ने खुद कहा था, "इस परिषद से खाली हाथ वापस लौटने की पूरी संभवना है।" वे सही भी थे। 12 सितंबर 1931 को वहाँ पहुँचने के बाद उनके हाथ निराशी ही लगी। बावजूद इसके उनकी यात्रा वहाँ के लोगों में चर्चा का विषय बनी। गांधीजी के बारे में वहाँ कहानियाँ कही जाने लगीं। ब्रिटिश नागरीकों के लिए यह बढ़िया बात थी कि उनके बीच एक सादा, ईमानदार, सत्यनिष्ठ व्यक्ति आया था। गांधीजी के व्यक्तित्व ने सभी को प्रभावित किया।

लंदन पहुँचने के बाद गांधीजी वहाँ की मजदेर बस्ती ईस्ट एंड के किंग्सले हॉल में ठहरे। अपनी जन-सेवा और सरल स्वभाव से गांधीजी ने वहाँ के युवा और बुजुर्ग वर्ग का दिल जीत लिया। वे सबके चहेते बन गये। उनकी सहजता, दयालुता ने देश और राष्ट्र की सीमाओं को तोड़ दिया। जब लोग उनसे उनके वत्रों के बारे में कहते तो उनका जवाब होता, "आप लोग चार वत्र पहन सकते हो, मैं चार वत्र नहीं पहन सकता।"

गांधीजी की इस इंग्लैंड यात्रा में एक सुखद घटना भी हुई। वह थी लैंकशायर के सूती मिल मजदूरों से उनकी भेंट। भारत में विदेशी वत्रों के बहिष्कार की सीधी मार इन लोगों पर पड़ी थी और कई लाख मजदूर बेकार हो गये थे। सभी मजदूर उनसे बड़ी विनम्रता व प्रेम से मिले। एक बेकार मजदूर ने तो यहाँ तक कहा, "मैं भी एक बेकार मजदूर हूँ, लेकिन यदि मैं भारत में होता तो वही करता जो गांधीजी ने किया।"

लौटते समय गांधीजी स्वित्झर्लैंड में रोमन रोलांड से मिलने गये। वहाँ की फासिस्ट की एक सभा में उन्होंने यह समझाया कि 'ईश्वर सत्य है` की अपेक्षा 'सत्य ही ईश्वर है` की धारणा ज्यादा बलवान है।

जिस दिन गांधीजी बंबई पहुँचे, उस दिन उन्होंने कहा था, "मेरे तीन महिने की इंग्लैंड और यूरोप की यात्रा पूरी तरह बेकार नहीं गई। मैंने अनूभव किया कि पूर्वी देश पूर्वी देश है और पश्चिमी देश पश्चिमी हैं। दोनों देशों के लोगों के व्यवहार में काफी समानताएँ हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन किस वातावरण में रहा है ? सभी के भीतर विश्वास और प्रेम का फूल अपनी सुगंध बिखेर रहा है।"

गांधीजी को जल्द ही अनुभव हुआ कि 'गांधी-इरविन` समझौते को अंग्रेज सरकार ने भंग कर दिया है। उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है। नये वाइसराय लॉर्ड विलिंग्डन ने अपने नये काले कानून से कई विषम परिस्थितियाँ लाकर खड़ी कर दी थीं। लोगों को गिरफ्तार करना उन पर गोली चलाना सामान्य बात हो गयी थी। गांधीजी को बंबई में रिसीव करने गये कांग्रेसी नेता जवाहरलाल नेहरू को रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया गया। 28 दिसंबर 1931 को जब गांधीजी बंबई पहुँचे तो उन्होंने कहा था- "मैं ऐसा समझता हूँ कि ये आर्डिनेस हमारे इसाई वाइसराय लॉर्ड विलिंग्डन साहब की ओर से हमें 'ख्रिसमस का उपहारृ है। एक सप्ताह बाद गांधीजी को भी गिरफ्तार कर यरवदा जेल में बंद कर दिया गया। इस सजा के लिए अदालत तक मामला नहीं ले जाया गया।


भारत छोड़ो आंदोलन

गांधीजी ने 'राजनीति' से संन्यास ले लिया था। लेकिन वास्तव में वे भारतीय जनजीवन की समस्याओं से गहराई से जुड़े थे। द्वितीय विश्व युद्ध ने उन्हें राजनीतिक अखाड़े में फिर लाकर खड़ा कर दिया। भारतीयों से पूछे बिना ब्रिटिश सरकार ने भारत को भी युद्ध में झेंक दिया। बोअर युद्ध में गांधीजी की भूमिका से अंग्रेज परिचित थे। वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने युद्ध की घोषणा के अगले दिन गांधीजी को सिमला बुलाया। युद्ध के विनाश की दुखी मन से चर्चा करते हुए गांधीजी ने इंग्लैंड के प्रति सहानुभूति जताई। वे बिना शर्त इंग्लैंड का समर्थन देने को तैयार थे। वे नहीं चाहते थे कि इंग्लैंड की मजबूरी का फायदा उठाया जाये, यह उनके सिद्धांत के खिलाफ था। दूसरी ओर कांग्रेस चाहती थी कि शर्त विशेष पर ही इंग्लैंड को समर्थन दिया जाये।

14 सितंबर 1939 को कांग्रेसी नेताओं ने घोषणापत्र जारी कर दिया, जिसमें हिटलर के हमले की निंदा की गई और कहा गया कि 'एक स्वतंत्र भारत' अन्य स्वतंत्र राष्ट्रों का समर्थन करेगा। इस घोषणा पत्र में गांधीजी के दृष्टिकोण का समावेश नहीं था। कांग्रेस को 'नहीं' में उत्तर दे दिया गया, साथ ही कहा गया कि ब्रिटेन ऐसी भारतीय सरकार को सत्ता नहीं सौंप सकता, जिस पर भारतीय जनता के बड़े हिस्से को आपत्ति हो। संकेत गैर-कांग्रेसी और कांग्रेस विरोधी मुस्लिमों की ओर था, जिनकी कमान मोहम्मद अली जिन्ना के हाथ में थी।

गांधीजी को यह कहते हुए बीस बरस से भी ज्यादा समय हो गया था कि हिंदु-मुस्लिम एकता के बिना भारत को स्वतंत्रता नहीं मिल सकती। लेकिन सांप्रदायिकता का रंग बार-बार चढ़ता रहा। अंत में गांधीजी ने 'भारत छोड़ो' का नारा बुलंद किया। 'भारत छोड़ो' आंदोलन एक साथ दो खतरों का हल था - पहला जापानी आक्रमण से देश की रक्षा और आपसी फूट को मिटाकर एकता स्थापित करना। एक बार फिर गांधीजी ने 'सत्याग्रह' शुरू किया। लोगों को तैयार करने लगे गांधीजी। इस आंदोलन ने देश के वातावरण को गरम कर दिया था। 7 अगस्त 1942 को बंबई में एक ऐतिहासिक बैठक हुई। बैठक में फैसला लिया गया कि, ूयदि ब्रिटिश राज्य को भारत से तुंत हटाया नहीं गया तो गांधीजी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया जायेगा।ृ

गांधीजी किसी भी योजना पर कार्य करने से पहले एक बार वाइसराय से मिलना चाहते थे। उसने गांधीजी से वार्ता करना उचित नहीं समझा। उसने कड़े हाथ से काम लेने का फैसला लिया। 9 अगस्त की सुबह कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इन गिरफ्तारीयों की खबर में पूरा देश जलने लगा। बंगाल, बिहार, बंबई आदि स्थलों पर जनता ने थाने, डाकघर, अदालतें, रेलवे स्टेशन आदि जला डाले। खूब उपद्रव हुआ। इन उपद्रवों की जिम्मेदारी के संबंध में पूना स्थित आगा खाँ काफी लंबा पत्र-व्यवहार हुआ। लॉर्ड लिनलिथगो ने जब अहिंसा में गांधीजी की आस्था और ईमानदारी में ही संदेह प्रकट कर दिया तो महात्माजी का हृदय फट सा गया। इस आत्मिक कष्ट से शांति पाने के लिए उन्होंने 10 फरवरी 1943 से इक्कीस दिन का उपवास आरंभ कर दिया। कैद में गुजारे ये वक़्त गांधीजी के लिए बड़े दुखदायी साबित हुए। गिरफ्तारी के छः दिन बाद उनके 24 वर्ष से सहयोगी रहे तथा सेक्रेटरी की भूमिका निभा रहे महादेव देसाई हार्ट फेल होने से चल बसे। इसी दौरान उनकी पत्नी कस्तूरबा गंभीर रूप से बीमार पड़ीं। उन्होंने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया। मानो गांधीजी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो।

गांधीजी की मानसिक स्थिति स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ नहीं थी। कस्तूरबा की मृत्यु के 6 सप्ताह बाद मलेरिया ने गांधीजी को भी अपनी चपेट में ले लिय। तेज बुखार रहने लगा। सरकार के लिए उनकी रिहाई उनके जेल में मर जाने से कम परेशानी का कारण होती। उन्हें बिना शर्त के 6 मई को जेल से रिहा कर दिया गया। वे काफी कमजोर हो चुके थे। कुछ समय तो उनही स्थिति बेहद खराब हुई, लेकिन धीरे-धीरे देश कामों में ध्यान देने लायक शक्ति उनमें आ गई थी। उन्होंने देश की दशा देखी। गांधीजी की इच्छा थी कि वे वाइसराय लॉर्ड वॉवेल से मिलें, लेकिन वॉवेल ने बातचीत करने से साफ मना कर दिया। गांधीजी जानते थे कि ब्रिटिश मुस्लिमों की माँगों को प्रोत्साहित कर रही है ताकि हिंदुओं के साथ मतभेद के अवसर बने रहें। वे उनकी 'फूट डालो और राज्य करो' की नीति से पूरी तरह परिचित थे। गांधीजी हिंदु-मुस्लिम एकता के पक्ष में थे। दोनों समुदायों को एकता की कड़ी में पिरोने के लिए उन्होंने उपवास भी रखा। उन्होंने काफी प्रयास किया किंतु मुस्लिमों के नेता जिन्ना 'मुस्लिमों के लिए अलग राज्य' से कुछ कम पाकर समझौता करने को बिलकुल तैयार न थे। जिन्ना ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य की माँग रखी।



देश को मिली आजादी,पर नहीं रहें गांधीजी!

ब्रिटिश सरकार भारत की स्थिति को नियंत्रित नहीं कर पा रही थी। चारों ओर उसके खिलाफ भारतीयों ने मोर्चा खेल दिया था। 1945 में ब्रिटेन में हुए चुनावों में चर्चिल हार गये, लेबर सरकार सत्ता में आई। नया प्रधानमंत्री भारत को अपने हाथ से निकलना नहीं देना चाहता था। लॉर्ड वॉवेल को वापस भारत भेजा गया। वापस आने पर उसने एक नयी योजना की घोषणा की। जिसके अनुसार नये संविधान की शुरूआत के रूप में प्रांतीय और केंद्रिय विधान सभाओं के चुनाव होने थे। इंग्लैंड से एक कैबिनेट मिशन आया। इस मिशन का उद्देश भारतीय नेताओं से बातचीत कर संयुक्त भारत के लिये संविधान बनाना था। लेकिन कांग्रेस और मुस्लिमों को एक साथ लेकर चलने में वे नाकाम रहे। मुस्लिमों की राय भारत से अलग होने की थी।

12 अगस्त 1946 को वाइसराय ने वार्ता के लिए जवाहरलाल नेहरू को आमंत्रित किया। उधर जिन्ना ने 'सीधी कार्रवाई दिन' का ऐलान कर दिया। बंगाल में काफी खून-खराबा हुआ। देश के कोने-कोने में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। गांधीजी के समझ में नहीं आ रहा था कि अलग से मुस्लिम राष्ट्र की माँग क्यों की जा रही है? उन्होंने मुहम्मद अली जिन्ना से अनुरोध करते हुए कहा था, ूयदि तुम चाहो तो मेरे टुकड़े कर लो, पर भारत को दो हिस्सों में न बाँटो।" गांधीजी दिल्ली की भंगी बस्ती में रहने चले गये, जहाँ दिन-प्रतिदिन हिंसा के खिलाफ उनका स्वर जोर पकड़ता गया।

तभी दिल को दहला कर रख देने वाला समाचार आया। पूर्वी बंगाल के नोआखली जिले में कई निर्दोष नागरिक सांप्रदायिक दंगे में मारे गये। अब गांधीजी के लिए शांत बैठे रहना असंभव था। उन्होंने निश्चय किया कि दोनों धर्में के बीच गहराती जा रही खाईं को वे अवश्य पाटेंगे, भले ही उसके लिए उन्हें अपने प्राणों का बलिदान देना पड़े। उनका कहना था, ूयदि भारत को आजादी मिल भी गई और उसमें हिंसा होती रही तो वह आजादी गुलामी से भी बदतर होगी।" नोआखली में मुस्लिम सरकार सत्ता में थी, गांधीजी ने वहाँ पदयात्रा करने का निर्णय लिया। जब वे कलकत्ता में थे तो उन्हें समाचार मिला कि नोआखली का बदला लेने के लिए बिहार में भी हिंसा का घिनौना कार्य किया गया। गांधीजी का दिल रोने लगा। यह वही स्थल था जहाँ से इस महात्मा ने भारत में अपना पहला सत्याग्रह शुरू किया था। गांधीजी ने बिहारियों को चेतावनी देते हुए कहा कि, "यदि हिंसक कार्रवाई जल्द नहीं रोकी गई तो वे तब तक उपवास रखेंगे जब तक उनकी मृत्यु नहीं हो जाती।" गांधीजी के इस प्रण को सुनते ही तुंत बिहार में हिंसा रोक दी गई। गांधीजी नोआखली रवाना हो गये।

वहाँ के हालात ने उन्हें विचलित कर दिया। जिस क्षेत्र में वे प्रेम व भाईचारे का मंत्र ले गये थे। वहाँ तो एक समुदाय दूसरे समुदाय के खून का प्यासा हुआ था। कई लोगों की हत्याएँ हुई। महिलाओं पर बलात्कार हुए और कईयों का जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया। गांधीजी के रोंगटे खड़े हो गये। पुलिस सुरक्षा को इंकार करते हुए, केवल एक बंगाली स्टेनोग्राफर को साथ लिए 77 वर्ष का यह महात्मा गाँव-से-गाँव तक, घर-से-घर तक की पदयात्रा कर रहा था। गांधीजी दोनों धर्मों के बीच प्रेम का सेतु (पुल) बनाना चाहते थे। वे फलाहार ही करते और हिंदु-मुस्लिम के दिलों को एक करने के लिए दिन-रात एक कर रहे थे। "मेरे जीवन का एक ही उद्देश्य है कि ईश्वर हिंदुओं और मुस्लिमों के दिलों को मिलायें। एक दूसरे के प्रति उनके मन में कोई डर या दुश्मनी न रहे।"

नोआखली में 7 नवंबर 1946 से 2 मार्च 1947 तक गांधीजी रहे। इसके बाद वे बिहार चले गये। यहाँ भी उन्होंने वही किया, जो नोआखली में किया था। गाँव-से-गाँव तक की पदयात्रा की। लोगों को उनकी गलती का एहसास कराने के साथ जिम्मेदारियों से भी परिचित कराया। घायलों के इलाज के लिए उन्होंने रूपए इकट्ठे करने शुरू किये। यह गांधीजी का ही प्रभाव था कि एक धर्म की महिलाएँ दूसरे धर्म के लोगों के इलाज के लिए अपने गहने तक उतार कर दे रहीं थी। गांधीजी ने बिहार के लोगों से कहा, "यदि दुबारा उन्होंने हिंसा का मार्ग अपनाया, तो वे गांधीजी को हमेशा के लिए खो देंगे।"

नये वाइसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने मई 1947 में गांधीजी को दिल्ली बुलाया। जहाँ कांग्रेसी नेताओं के साथ जिन्ना भी उपस्थित थे। जिन्ना मुस्लिमों के लिए अलग राष्ट्र की माँग पर अड़े थे। गांधीजी ने जिन्ना को समझाने का लाख प्रयास किया पर वह टस-से-मस नहीं हुए।

आखिर वह दिन भी आ गया, जब भारत आजाद हुआ। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ। गांधीजी ने इस दिन आयोजित किये गये समारोह में भाग न लेकर कलकत्ता जाना उचित समझा। जहाँ सांप्रदायिक दंगों की आग सब कुछ तहस-नहस कर रही थी। गांधीती के वहाँ जाने पर धीरे-धीरे स्थिति शांत हो गई। कुछ दिन वहाँ पर गांधीजी ने प्रार्थना एवं उपवास में गुजारें। दुर्भाग्य से 31 अगस्त को कलकत्ता दंगों की आग में जलने लगा। सांप्रदायिक दंगों की आड़ में लूट, हत्या, बलात्कार का भीषण कांड शुरू हुआ। अब गांधीजी के पा एक ही विकल्प था 'अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक व्रत करना।' गांधीजी की इस घोषणा ने सारी स्थिति ही बदल डाली। उनका जादू लोगों पर चल गया। 4 सितंबर को विभिन्न धर्मों के नेताओं ने उनसे इस धार्मिक पागलपन के लिए माफी माँगी। साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि अब कलकत्ता में दंगे नहीं होंगे। नेताओं की इस शपथ के बाद गांधीजी ने व्रत तोड़ दिया। कलकत्ता तो शांत हो गया किंतु भारत-पाक विभाजन के कारण अन्य शहरों में दंगों ने जोर पकड़ लिया।

गांधीजी सितंबर 1947 में तब दिल्ली लौटे तो उस शहर में भी सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे। पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों पर हुए निमर्म अत्याचार ने आग में घी का काम किया। दिल्ली के सिखों और हिंदुओं ने बदले की भावना से कानून को अपने हाथ में ले लिया। मुस्लिमों के घरों को लूटा गया, धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुँचाया गया, हत्याओं का दौर शुरू हुआ। सरकार सख्त कदम उठाना चाहती थी, लेकिन जनता के सहयोग के बिना वह कुछ भी कर पाने में असमर्थ थी। इस डरावने और अराजकता के माहौल में गांधीजी ने कहा, "बधाई कहाँ से आ गई? इधर देश जल रहा है। चारों ओर हिंसा का साम्राज्य है। मेरे हृदय में जरा भी प्रसन्नता नहीं...। लोगों को इस तरह लड़ते-झगड़ते देख मुझे और जीने की बिलकुल इच्छा नहीं होती।"

गांधीजी की पीड़ा बढ़ती ही जा रही थी। उनके दिल्ली में होने के बावजूद हिंसा-लूटपाट रूकने का नाम नहीं ले रहा था। अभी भी शहर के मुसलमान निडर होकर दिल्ली की सड़कों पर नहीं चल सकते थे। गांधीजी पाकिस्तान भी जाना चाहते थे ताकि वहाँ के पीड़ितों के लिए भी कुछ कर सकें। लेकिन दिल्ली के हालात काफी नाजुक थे। ऐसे बुरे दौर में दिल्ली को छोड़ना उनके लिए संभव नहीं था। गांधीजी स्वयं को असहाय महसूस करने लगे। 'मैने अपने आपको कभी भी इतना असहाय महसूस नहीं किया था।' वे 13 जनवरी 1948 को उपवास पर बैठ गये। उन्होंने यह भी कहा, 'ईश्वर ने मुझे व्रत रखने के लिए ही भेजा है।' उन्होंने लोगों सं कहा कि वे उनकी चिंता न करें, बल्कि 'नई रोशनी' की खोज में जुटें।

परिस्थितियाँ बदलने जा रही थीं। यह कहना मुश्किल है कि रोशनी किस-किसके दिल में उतरी। 18 जनवरी को दुख-दर्द भरे सप्ताह के बाद गांधीजी के पास विभिन्न धर्मों, संस्थाओं और हिंदु संघ 'आर एस एस' के लोग गांधीजी से मिलने दिल्ली के बिरला हाउस आये। वहाँ गांधीजी स्तिर पड़े हुए थे। उन्होंने लोगों का मुस्कुरा कर स्वागत किया। सभी लोगों के गांधीजी को एक पत्र दिया, जिसमें लिखा था - 'हम सब लोगों के प्राणों की रक्षा करेंगे। मुस्लिमों का विश्वास जीतेंगे। अब फिर दिल्ली में इस तरह की घटनाएँ नहीं होंगी।' गांधीजी ने अपना व्रत तोड़ दिया। संसार के विभिन्न कोने में इस घटना की चर्चा हुई।

अब तक गांधीजी के व्रत ने विश्व के करोड़ों लोगों के दिलों को छू लिया था। लेकिन कट्टर हिंदुओं पर इसका अलग प्रभाव पड़ा। उन्हें लगा कि गांधीजी ने इस तरह का व्रत करके हिंदुओं को 'ब्लैकमेल' किया है। गांधीजी के पाकिस्तान के प्रति दृष्टिकोन पर भी उनका नजरिया कुछ ज्यादा अच्छा नहीं था।

व्रत समाप्ति के दूसरे दिन हमेशा की तरह जब गांधीजी शाम की प्रार्थना में थे तो उन पर बम फेंका गया। सौभाग्य से निशाना चूक गया। गांधीजी बच गये। पर गांधीजी जरा भी विचलित नहीं हुए, वे नीचे बैठ गये और अपनी प्रार्थना जारी रखी। गांधीजी कई वर्षों से जनता के साथ प्रार्थना कर रहे थे। हर शाम वे जहाँ कहीं भी होते, वे अपनी प्रार्थना सभा खुले मैदान में रखते। जहाँ वे लोगों से वार्ता भी करते। इस प्रार्थना सभा में सभी का स्वागत था। इसमें रूढिवादिता को, किसी विशेष धर्म को कोई स्थान नहीं था। सभी लोग प्रार्थना गीत गाते। अंत में गांधीजी हिंदी भाषा में दो शब्द बोलते। यह जरूरी नहीं था कि वे किसी धार्मिक थीम पर ही बोलें, वे दिन भर की किसी भी घटना पर बोलते। यह गांधीजी का नियम था। वे किसी भी विषय पर बोलते लेकिन उनका मकसद लोगों को सही दिशा देना ही होता था।

कई बार गांधीजी का सुनने सैकड़ों तो कई अवसरों पर हजारों की भीड़ उमड़ती। जहाँ भी उनकी प्रार्थना सभा होती उनके अनुयाइयों का ताताँ लग जाता। एक छोटे से मंच पर बैठकर गांधीजी अपनी बात कहते। हिंसा का क्रम जारी था। गांधीजी इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए लोगों से आग्रह करते रहे। पाकिस्तान के विभाजन और बदले की भावना से समाज का एक बड़ा वर्ग क्रोधित था। गांधीजी को चेतावनी दी गई कि उनका जीवन खतरे में है। पुलिस अधिकारी चिंतित थे, क्योंकि गांधीजी ने सुरक्षा लेने से इंकार कर दिया। 'अपने ही देश में, अपने ही लोगों के बीच मुझे सुरक्षा लेने की आवश्यकता नहीं।' 40 वर्ष पूर्व दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने कहा था, "जीवन में सभी की मृत्यु निश्चित है। चाहे कोई अपने भाई के हाथों मरे, चाहे किसी रोग का शिकार होकर या फिर किसी और बहाने। मरना कोई दुख की बात नहीं है। मैं इससे नहीं डरता।"

गांधीजी को मृत्यु से भय नहीं था। बम फेंके जाने की घटना के दस दिन बाद 30 जनवरी 1948 के दिन गांधीजी बिरला पार्क के मैदान में प्रार्थना सभा के लिए जा रहे थे। वे कुछ मिनट देरी से पहुँचे। समय से पाँच-दस मिनट देरी से पहुँचने के कारण वे मन-ही-मन में बड़बड़ाने लगे। 'मुझे ठीक पाँच बजे यहाँ पर पहुँचना था।' गांधीजी ने वहाँ पहुँचते ही अपना हाथ हिलाया, भीड़ ने भी अपने हाथों को हिलाकर उनका अभिवादन किया। कई लोग उनके पाँव छूकर आशीर्वाद लेने के लिए आगे बढ़े। उन्हें ऐसा करने से रोका गया क्योंकि गांधीजी को पहले ही देरी हो चुकी थी। लेकिन पूना के एक हिंदू युवक ने भीड़ को चीरते हुए अपने लिए जगह बनाई। गांधीजी के नजदीक पहुँचते ही उसने अपनी अटॉमेटिक पिस्तोल से गांधीजी के दिल को निशाना बनाते हुए तीन गोलीयाँ दाग दी। गांधीजी गिर पड़े, उनके होठों से ईश्वर का नाम निकला - 'हे राम'। इससे पहले की उन्हें अस्पताल ले जाया जाता, उनके प्राण निकल चुके थे। प्रेम का यह पुजारी दुनिया को अलविदा कह गया।

अपने ही लोगों द्वारा महात्मा की हत्या उन लोगों के लिए शर्म की बात थी जो गांधीजी के प्रेम, सत्य, अहिंसा के सिद्धांत को न समझ सके। राष्ट्र की उमड़ी भावना को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दुखी, करूणाभरी आवाज में रेडियो पर कुछ यूँ कहा -

"वह ज्योति चली गई, जिसने लोगों के अंधकारमय जीवन को रोशनी दी। चारों ओर अंधेरा हो गया है। मैं चुप नहीं रह सकता। लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं आप लोगों से क्या कहूँ और कैसे कहूं। हम सबके लाड़ले नेता, जिन्हें हम 'बापू' कहते थे, देश के राष्ट्रपिता अब नहीं रहें... हमारे सिर से उनका साया चला गया। 'बापू' ने देश को जो प्रकाश दिया था वह कोई सामान्य नहीं था। वह जीवन जीने का मंत्र देने वाली ज्योति थी। उस रोशनी ने देश के कोने-कोने में उजाला फैलाया। संपूर्ण विश्व ने इसे देखा। उनके सत्य, प्रेम, अहिंसा के दिपक हमेशा इस देश के लोगों को अपनी रोशनी देते रहेंगे.....।"

ऐसे लोग मर कर भी जिंदा रहते है। गांधीजी ने अपने दम पर विश्व को यह दिखला दिया कि प्रेम, सत्य और अहिंसा का मार्ग ही श्रेष्ठ मार्ग है। इसी का प्रयोग करके उन्होंने देश को आजादी दिलाई। समाज के गरीब, असहाय और अछूतों के उद्धार के लिए किये गये उनके कार्यों को भी भुलाया नहीं जा सकता। स्वराज, सत्याग्रह, प्रार्थना, सत्य, प्रेम, अहिंसा, स्वतंत्रता के संबंध में उनके सिद्धांत बड़े बेशकीमती रत्न हैं। गांधीजी का जीवन लोगों के लिए था। उन्होंने मानवता के लिए अपना बलिदान दे दिया। यह भी सच है कि जिस व्यक्ति ने सबको अपने बराबर समझा, हमारे इस युग में उसके बराबर कोई नहीं था। जितना भी हम उनके बारे में जानते हैं, बस यही कि वह 'कथनी-करनी' में एकनिष्ठ रहने वाले थे। सबसे बुद्धिमान, संवेदनशील, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, सिद्धांतवादी थे। ऐसे महापुरुष बार-बार जन्म नहीं लेते। गांधीजी के विचारो पर चलकर देश की वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी सुनहरे भारत का सुनहरा इतिहास लिख सकती है। 'हे बापू तुम्हें नमन!' 






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